क्या कहते हैं वेद, गीता ओर पुराण?

हर कंकर में शंकर या कण-कण में भगवान कहां से आया ये शब्द?
हिन्दू धर्म के किसी भी ग्रन्थ में मूर्ति पूजा की शिक्षा नहीं है , बल्कि उससे रोक गया है.
1 ईश्वर न तो लकड़ी में है , न पत्थर में,न मिट्टी से बनी मूर्ति में वह तो एहसासात (feelings) में मौजूद है, उसका एहसास होने ही उसके वज़ूद की दलील है. (गरुड़ पुराण धर्म कांड प्रेत खंड:38-13)
2 मिट्टी,पत्थर वगेरह की मुर्तिया ईश्वर नहीं होती. (श्रीमद् भागवत महापुराण, 11:84-10)
3 मेरे गुणों को न जानने वाले मुर्ख लोग मुझे शरीर वाला समझकर मेरा अपमान करते है. (गीता,9-11)
4 सभी जानदार मुझमे रहते नहीं। मेरी कुदरत है की मैने ही सभी जानदारों को पैदा किया और उनको पालता हुँ, फिर भी उनमे रहता नहीं। (गीता,9-5)
5 ईश्वर हर जगह रहने वाला नूर (light) है. (यजुर्वेद,40:1)
6 ईश्वर की कोई मूर्ति नहीं उसका नाम ही महान है. (यजुर्वेद,3:32)
7 वह लोग अँधेरे की गहराइयों में डूब जाते है जो असम्भूति जैसे आग,पानी वगेरह की पूजा करते है, वह लोग इससे भी गहरे अँधेरे में डूब जाते है, जो सम्भूति से बानी चीज़ों की पूजा करते है, (जैसे मूर्ति वगेरह).
(यजुर्वेद,अध्याय,32:3)
8 पवित्र वेद हिन्दू धर्म के सबसे Authentic ग्रन्थ है, चारो वेदो में मूर्ति पूजा को सख्ती से रोका है.
9 पवित्र वेदो के बाद उपनिषद को ऑथेंटिक माना गया है, कुल 108 उपनिषद है, उनमे से 10 उपनिषदों को सभी आचार्य और विद्वान मानते है उनके नाम इस तरह है- ऐश,केंसुय, कठ, प्रशन, मंडक, माण्डूक्य,एत्रेया, तैत्रेया, छान्दोग्य और बृहद आर्डिक, यह मूर्ति पूजा को रोकते है.
10 वेद और उपनिषद प्राचीन ग्रन्थ है। पुराण ऋषियों ने लिखा है और यह प्राचीन भी नहीं है, कुछ पुराणो में मूर्ति पूजा के लिए कहा गया है, इसकी वजह स्वामी विवेकानंद इस तरह बताते है.
"ऋषियों ने मूर्ति पूजा की परंपरा शुरू की, ताकि वह उस मूर्ति को जरिया बना कर अपने सामने मुश्किल (ईश्वर) को देख सके." (विष्णु ऋषि पृष्ठ 149, विवेकानंद साहित्य अदोहोत आश्रम पत्थोरा गढ़ , दूसरी आवृत्ती 1973)
11 मगर गीता के इस शलोक से ईश्वर पर ध्यान लगाने के लिए मूर्ति पूजा की जरुरत नहीं है.
इबादत (प्रार्थना) करने वाले को चाहिए की अपने शरीर, गले और सर को एक सीध में कर ले और अपनी नाक के अगले सिरे पर निगाह जमाकर ध्यान करे और किसी दिशा में न देखे. (गीता 6:13)
तो वास्तव में मूर्ति पूजा की शिक्षा हिन्दू धर्म में नहीं है , जो ऐसा करते है शायद उन्हें धर्म का ज्ञान नहीं है.
फिर सवाल ये है कि क्यूं बांटा गया हमको धर्मों मैं? सभी ईश्वर की किताबें एक रब की तरफ़ इशारा करती हैं, फिर धर्म मैं ईश्वर की वाणी मैं बदलाव क्यूं ओर किसने किया?
किसी के पास जवाब हो तो बड़े प्रेम से मुझको समझाने की कोशिश करें बड़ी कृपा होगी.
पेशकर्ता-एस एम फ़रीद भारतीय.

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