अरनब गोस्‍वामी जैसे एंकर करते हैं केवल एलीट क्‍लास की चिंता-एमेनेस्टी डायरेक्टर

एमनेस्‍टी इंटरनेशनल के एक्‍जीक्‍यूटिव डायरेक्‍टर आकार पटेल ने अपने लेख में लिखा है कि अरनब गोस्‍वामी जैसे अंग्रेजी एंकर बेहद ताकतवर हो गए हैं.
टाइम्‍स नाऊ के एडिटर इन चीफ एंकर अरनब गोस्‍वामी।
टीवी पत्रकारिता में कुछ पत्रकारों के बेहद शक्तिशाली होने पर एमनेस्‍टी इंटरनेशनल के एक्‍जीक्‍यूटिव डायरेक्‍टर आकार पटेल ने चिंता जताई है, रेडिफ डॉट कॉम के लिए लिखे गए एक लेख में उन्‍होंने अंग्रेजी समाचार चैनल टाइम्‍स नाऊ के एडिटर-इन-चीफ अरनब गोस्‍वामी पर निशाना साधा है.

उन्‍होंने अपने लेख में लिखा है कि अरनब गोस्‍वामी जैसे अंग्रेजी एंकर बेहद ताकतवर हो गए हैं, पटेल ने लिखा, ”क्‍या भारत में टेलीविजन पत्रकार बेहद शक्तिशाली हो गए हैं? मैं कहूंगा हां, खासतौर से टाइम्‍स नाऊ के अरनब गोस्‍वामी जैसे अंग्रेजी एंकर्स, शक्तिशाली से मेरा मतलब है कि वह रोजमर्रा की बहसों को प्रभावित करते हैं, यह ऐसी ताकत है जो प्रिंट और इंटरनेट के पत्रकारों के पास नहीं है, न कभी थी, मेरा मतलब यह भी है कि गोस्‍वामी जैसे एंकर्स का यह प्रभाव, ज्‍यादातर नकरात्‍मक है.
क्‍योंकि उनका ध्‍यान ऐसे मुद्दाें पर रहता है जो उच्‍च वर्ग की चिंताओं को प्रदर्शित करते हैं, वे मुद्दे जिनसे बहुत से लोग, सैकड़ों लाख भारतीय प्रभावित होते हैं जैसे- स्‍वास्‍थ्‍य, प्राइमरी एजुकेशन और पोषण, पर बात नहीं होती, और ऐसा इसलिए नहीं कि एंकर बुरा है या वह नुकसान पहुंचाना चाहता है.
पटेल आगे लिखते हैं, ”इन सबके पीछे ढांचागत कारण हैं और इसी वजह से यह इतनी आसानी से नहीं बदलेगा। आइए उन कारणों पर नजर डालें.
पहला, भारत भाषा के मामले में असामान्‍य देश है। यह इकलौता बड़ा देश है जिसके कुलीन वर्ग की पहली भाषा विदेशी है, इसके कई सांस्‍कृतिक नतीजे निकलते हैं जिन पर बाद में बात की जा सकती है, अनुमान यह है कि करीब 10 प्रतिशत भारतीय अंग्रेजी बोल-समझ लेते हैं, मेरे ख्‍याल से इसके एक-चौथाई लोगों के लिए अंग्रेजी पहली भाषा है, अपर क्‍लास भा षाई तौर पर सिर्फ इसीलिए जुड़ा हुआ है क्‍योंकि अंग्रेजी एक लिंक भाषा है, इसके अलावा किसी गरीब तमिल के लिए गरीब कश्‍मीरी या गरीब गुजराती से बात करने का कोई और रास्‍ता नहीं है.
”दूसरा ढांचागत कारण मीडिया का बहुत ज्‍यादा सब्सिडाइज्‍ड होना है, यहां पर अखबारों की कीमत ज्‍यादा से ज्‍यादा 4 रुपए है, इतनी कीमत में आपको 40 पन्‍नों का एक ब्राडशीट अंग्रेजी अखबार मिल जाता है, जबकि अमेरिका और यूरोप के देशों में इतने ही पन्‍नों के अखबार की कीमत 70 रुपए बैठेगी, यहां तक कि हमारी पड़ोसी- पाकिस्‍तान, श्रीलंका और बांग्‍लादेश में अखबारों की कीमतें भारत से चार गुना ज्‍यादा हैं.
कागज की कीमत पूरी दुनिया में एक जैसी है। भारत के प्रमुख दैनिक अखबार कनाडा से न्‍यूजप्रिंट (कागज, जिसपर अखबार छपता है) खरीदते हैं, मेरा अनुमान यह है कि हर कॉपी के लिए न्‍यूजप्रिंट की कीमत 12 रुपए से ज्‍यादा है, फिर उसे अखबार मालिक 4 रुपए में कैसे बेच सकते हैं? पा‍ठक को सब्सिडी कौन दे रहा है? निश्चित तौर पर विज्ञापनदाता.
इसी तरह सेटेलाइट के जरिए चैनलों की कीमत में भी जमीन-आसमान का अंतर है, आप टाटा स्‍काई पर सिर्फ 60 रुपए में 20 से ज्‍यादा अंग्रेजी न्‍यूज चैनल्‍स देख सकते हैं। इसमें टाइम्‍स नाऊ की कीमत 3 रुपए प्रतिमाह है, जबकि अमेरिका में फॉक्‍स न्‍यूज को सब्‍सक्राइब करने के लिए 20 गुना ज्‍यादा रकम खर्च करनी पड़ेगी।
”विज्ञापनदाता सिर्फ उन उपभोक्‍ताओं में दिलचस्‍पी दिखाते हैं जो खर्च कर सकते हैं, इन समूहों को आकर्षित करने के लिए, टीवी चैनलों को इन्‍हीं उपभोक्‍तओं को आकर्षित करने वाला कंटेंट चलाा होगा, इसीलिए हम कुपोषण पर कोई प्राइम टाइम बहस नहीं देखते। इसीलिए हमारे टीवी चैनलों पर आतंकवाद और कट्टरवाद पर इतना फोकस रहता है क्‍योंकि इसी में अपर क्‍लास को दिलचस्‍पी है.
निश्चित तौर पर यह भी सही है कि अक्‍सर एंकर अपने कंटेंट की लो‍कप्रियता के लिए इन ढांचागत पहलुओं की जगह निजी टैलेंट के बीच में कंफ्यूज हो जाते हैं, जल्‍द ही यह खतरनाक निजी हमले में बदल जाते हैं, जैसा कि हम इन दिनों बरखा दत्‍त और अन्‍य के मामले में देख रहे हैं, जिन्‍हें पाकिस्‍तानी एजेंट बताया जा रहा है.
”पिछले कुछ सालों में सरकार को अपनी नीतियों और कार्रवाई में वही बदलाव करने पड़े हैं जो अरनब जैसे एंकर्स मांग करते रहे हैं.
सरकार के एक ज्ञानी सदस्‍य ने मुझे अपना एनालिसिस समझाया, मैं उसका छोटा सा हिस्‍सा लिख रहा हूं। उन्‍होंने कहा, ”अरनब अब एजेंडा सेट कर रही है, चीन या पाकिस्‍तान की किसी भी विजिट से पहले सीमा पार से घुसपैठ की तस्‍वीरें सामने आ जाती हैं, यह विजिट को टालने या उसके प्रभाव को कम करने के लिए किसी अभियान की तरह डिजाइन किया जाता है.
”यह गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए क्‍योंकि टेलीविजन एंकर्स को लोकप्रियता और रेटिंग्‍स के सिवा और किसी चीज में दिलचस्‍पी नहीं है, एंकर को भले ही यह भरोसा हो कि उसकी लोकप्रियता राष्‍ट्रहित से जुड़ी हुई है, लेकिन इस पर कोई विवाद नहीं होना चाहिए कि कुछ मुद्दों पर, ऐसा नहीं भी हो सकता है, इन सबसे कितना नुकसान हुआ है? इस मुद्दे पर कोई टेलीविजन बहस होना संभव नहीं लगता.

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