ठीक एक साल पहले 31 जुलाई को भारत और बांग्लादेश के बीच गांवों की अदला-बदली हुई थीं.
51 बांग्लादेशी गांव भारत के साथ जुड़ गए थे और 111 भारतीय गांव जो बांग्लादेश के भूखंड के अंदर थे, वो बांग्लादेश की सीमा में चले गए थे.
नौ सौ से कुछ ज्यादा लोग भारत के मूल भूखंड में आ गए थे पर एक ही साल में उन में कई सोचने लगे कि शायद भारत में आने का उनका फ़ैसला ग़लत था.
दूसरी तरफ जो बांग्लादेशी गांव भारत में शामिल हो गए थे. वहां अभी भी ना तो सड़क बनी है ना ही बिजली पहुंची है और वहां ना ही स्कूल की कोई व्यवस्था है.
हालांकि भारत के इन नए नागरिकों को वोटर कार्ड और आधार कार्ड ज़रूर मिल गया है.
बड़ी धूमधाम के साथ 31 जुलाई और पहले अगस्त की मध्यरात्रि को पिछले साल भारत और बांग्लादेश के बीच गांवों की अदला-बदली हुई थी.
हज़ारों की तदाद में इन गांव के लोगों को नई नागरिकता और नई पहचान मिली थी, नौ से कुछ ज्यादा लोग जो बांग्लादेश में मौजूद भारतीय गांवों में रहते थे, वो भारत में आ गए थे.
उनको पश्चिम बंगाल के उत्तरी ज़िले कूचबिहार के कई अस्थाई अवासों में रखा गया. ऐसा ही एक अवास हल्दीबारी शहर के बाहर है.
अस्थाई अवास टीन से बने हुए थे, बच्चे कीचड़ में मछली पकड़ रहे थे. महिलाएं पीने का पानी लेने के लिए सार्वजनिक नालों के सामने जुटे थे.
उन्हीं में से एक महिला लक्ष्मी बर्मन बांग्लादेश में मौजूद रहे भारतीय गांव दाहाला खागराबारी से भारत की तरफ आई हैं.
लक्ष्मी बर्मन का कहना है, बनी बनाई गृहस्थी छोड़ कर भारत में आ गए थे. उम्मीद थी कि यहां बेहतर ज़िंदगी जी पाएंगे. पर कुछ भी तो नहीं मिला, अगर सरकार कुछ कर नहीं पाती तो वापस चले जाएंगे परिवार के साथ.
भारत और बांग्लादेशों की सीमा पर स्थित गांवों की यह समस्या सन् सैतालिस में देश के बंटवारे के साथ शुरू हुई थी. पूर्वी बंगाल का रंगपुर जिला और कूचबिहार महाराज के शासन वाले इलाके में सदियों से ऐसे कई क्षेत्र थे जो स्थित तो थे किसी एक के इलाके में पर वहां शासन किया जाता था दूसरे के द्वारा.
इन क्षेत्रों को चिटमहल कहा जाता था. कूचबिहार में रंगपुर के गांव और रंगपुर के अंदर कूचबिहार के गांव हुआ करते थे.
बंटवारे के दौरान भी इस विचित्र समस्या का कोई समाधान नहीं हुआ था. इसका नतीजा ये हुआ कि रंगपुर के अधिन क्षेत्र पाकिस्तान में तो चला गया पर कूचबिहार में कई गांव भी साथ ही साथ पाकिस्तान में चले गए.
और इसके चारों तरफ भारत का इलाका रह गया. कूचबिहार का इलाका भारत के अधिन रहते हुए भी पाकिस्तानी सीमा के उस पार रह गए.
नेहरू-नून संधि और बाद में इंदिरा-मुजीब समझौते के अधिन इन इलाकों के अदला-बदली का सिद्धांत लागू हुआ था जो पिछले साल 31 जुलाई और एक अगस्त की आधी रात को पूरा हुआ.
लक्ष्मी बर्मन की तरह अस्थाई शिविरों में रह रहें कई और लोग भी अब सोचने लगे है कि शायद भारत में आने का फैसला ग़लत था.
हल्दीबारी और दिनहाटा के कई अस्थाई शिविरों में मैंने कई ऐसे लोगों से बात की, उन लोगों का कहना था कि अगर सरकार उनका पुनर्वास नहीं कर पा रही है तो वापस उनको बांग्लादेश भेज दें. जो भी आश्वासन दिया गया था उसका एक चौथाई भी पूरा नहीं किया गया है. बांग्लादेश में मौजूद भारतीय चिटमहलों में ही वो इससे बेहतर हालात में थे.
उनका मानना था कि भारत आकर शायद उन लोगों ने ग़लती कर दी है. जिसतरह से सीमा पर स्वागत कर उन्हें लाया गया था, उसी सीमा से उन्हें वापस भेज दिया जाए.
एक तरफ जब पूर्व भारतीय चिटमहलों से मूल भूमि में आए लोग अपने फ़ैसले पर विचार कर रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ जिन बांग्लादेशी चिटमहलों को भारत में शामिल कर दिया गया है वहां के लोगों का एक साल के बाद क्या हाल है?
यह पता करने के लिए रिपोर्टर पहुंचा बातरी गाछ चिटमहल.
गांव के निवासियों अनिल बर्मन, अलांतो बर्मन और अंजु आरा बीबी का कहना है कि सरकार की तरफ से मुर्गी का बच्चा दिया गया है पालने के लिए. आधार कार्ड ज्यादातर लोगों को मिल गया है.
वोटर परीचय पत्र भी दिया गया है पर और कुछ नहीं मिला अभी तक. चिटमहलों की अदला-बदली तो हुई है पर ना तो रास्ता बना है, न बिजली है और ना ही सिंचाई और पीने के पानी की व्यवस्था. कुछ भी नहीं मिला एक साल में, दूसरा एक ऐसा ही गांव है पोयतुकुथि. इस गांव में 2015 में सरकार की तरफ से तिरंगा झंडा फहराया गया था.
पोयतुकुथि के निवासियों ने भी कहा कि उनकी भले ही पहले कोई पहचान नहीं थी लेकिन वो ज्यादा चैन से जी रहे थे. पर एक साल में स्थानीय राजनीति का वो शिकार होने लगे हैं और शांति से नहीं जी पा रहे हैं. राजनीतिक हमलों के भी वो शिकार हो चुके हैं.
गांव के लोगों का कहना है कि विकास का कोई काम नहीं हो पाया है और यह भी नहीं पता चल पा रहा है कि कौन सी ज़मीन किसकी है. यह जानने के लिए सर्वे भी नहीं शुरू किया गया है.
इस मसले पर उत्तरी बंगाल के विकास मंत्री रवींद्रनाथ घोष का कहना है कि अभी सिर्फ एक ही साल तो हुए है और इस एक साल में उन्हें वोटर कार्ड और आधार कार्ड मिल चुका है. नरेगा का जॉब कार्ड भी मिला है. यह सही बात है कि सरकार अब तक बिजली की व्यवस्था नहीं कर पाई है. पर विधानसभा चुनाव के कारण तीन महीने तक तो कोई काम ही नहीं हो पाया और उसके बाद बरसात का मौसम आ गया.
उन्होंने बताया कि केंद्र सरकार से एक सौ सत्तर करोड़ रुपया आ चुका है. बरसात ख़त्म होते ही काम चालू हो जाएगा. इतना असहिष्णु होने से कैसे होगा. इंतज़ार तो करना ही पड़ेगा.
इन गांवों के लोग शायद इंतज़ार करेंगे भी क्योंकि नागरिकता पाने के लिए भी इन लोगों ने अड़सठ साल इंतज़ार किए हैं. इंतज़ार करने की इनकी तो आदत सी पड़ गई है.
रिपोर्ट
अमिताभ भट्टासाली कोलकाता
बीबीसी से जुड़े हैं
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