ज़ालिम भी हम, मज़लूम भी हम ही हैं।

ज़ालिम भी हम, मज़लूम भी हम ही हैं, कैसे कोई बतायेगा मुझको .....?

सोचते रहो बोलते रहो बस होगा कुछ भी नहीं जब तक कमरों से बाहर निकल सड़क की राजनीति नहीं करोगे ।

हमेशा ही देखने मैं आया है कि सारी परेशानियां ओर सारे मुद्दे चुनाव के वक़्त ही याद आते हैं ओर सोने पर सुहागा ये कि हम ही ज़ालिम ओर हम ही मज़लूम भी बन जाते हैं ।

सवाल खड़ा हो गया कि हम ज़ालिम भी ओर मज़लूम भी ऐसा कैसे हो सकता है, हम तो हमेशा ही आज़ादी से लेकर आज तक मज़लूम रहे हैं।

जी ये सच है ओर बहुत ही कडवा सच है कि आज़ादी से लेकर आज तक हम मज़लूम रहे हैं, लेकिन ये भी एक कडवा ही सच है कि हम ही ज़ालिम भी रहे हैं ओर बिन सोचे समझे अपनों पर ज़ुल्म भी करते आये हैं ओर ज़ुल्म करने को हम मुल्क के अमन चैन से जोड़ते आये हैं ।

हमने मुल्क के अमन चैन के लिए अपना सब कुछ दाव पर लगाने के बाद हासिल क्या किया या मिला क्या ये सबसे बड़ा मुद्दा हमारी बहस का होना चाहिए।

लेकिन अफ़सोस ऐसा ना तो आज तक हुआ है ओर ना ही आगे होगा भी ऐसा लग रहा है, जमाना बदल रहा है ज़माने के साथ सोच भी बदल रही है, लेकिन हम आज भी दाल रोटी की लड़ाई मैं उलझे हैं ओर अमन चैन से रोज़ी रोटी के जुगाड़ मैं लगे रहने की कोशिश करते हैं।

जबकि सामने वाला हमको बताने की कोशिश कर रहा है कि तुम अब तक सोये पड़े हो जाग जाओ, मैं तुम पर ज़ुल्म कर रहा हुँ कि तुम जागो लेकिन हम हैं कि जागने को तैयार ही नहीं हैं, गहरी नींद हमको गहरी खाई मैं ले जा रही है, वहीं हमारे सोने से मुल्क के अमन चैन के साथ अज़मत को भी ख़तरा बढ़ता ही जा रहा है, ओर शायद जब तक हम सोये रहेंगे या सोने का नाटक करते रहेंगे तबतक ये होता रहेगा ॥
मेरे सवाल का जवाब ज़रूर दें
ज़ालिम भी हम, मज़लूम भी हम कैसे....?
एस एम फ़रीद भारतीय
09808123436

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