सम्पादकीय
एस एम फ़रीद भारतीय
एनबीटीवी इंडिया

हम आपको बताते हैं कि आखिर क्या है पत्रकारों को प्रोटक्शन देने वाला सुप्रीम कोर्ट का 1962 का यह फैसला और कोर्ट ने कब-कब किसे नहीं माना है राजद्रोह....
1962 में सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के वाद में महत्वपूर्ण व्यवस्था दी थी, अदालत ने कहा था कि सरकार की आलोचना या फिर प्रशासन पर कॉमेंट करने से राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता, राजद्रोह का केस तभी बनेगा जब कोई भी वक्तव्य ऐसा हो जिसमें हिंसा फैलाने की मंशा हो या फिर हिंसा बढ़ाने का कारण मौजूद हो, सरकार आलोचना मात्र राजद्रोह नहीं हो सकता.
अभी बीती 3 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के सामने जम्मू कश्मीर के पूर्व सीएम फारुख अब्दुल्ला का मामला आया था, तब भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सरकार से अलग मत रखना राजद्रोह नहीं हो सकता है, तब सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद-370 पर जम्मू कश्मीर के पूर्व सीएम फारुख अब्दुल्ला के बयान के मामले में उनके खिलाफ दाखिल याचिका को खारिज करते हुए ये टिप्पणी की थी, याचिका में कहा गया था कि फारुख अब्दुल्ला ने 370 को बहाल करने का जो बयान दिया है वह राजद्रोह है और उनके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए, 3 मार्च को इस मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सरकार के मत से अलग मत रखना और व्यक्त करना राजद्रोह नहीं बनता है, तब अदालत ने याचिकाकर्ता की अर्जी खारिज करते हुए उन पर 50 हजार रुपये का हर्जाना भी लगाया है.
इससे ये साबित हुआ कि सरकार हर एक की राय को अपनी राय से जोड़ना चाहती है, यानि गधे घोड़े सब बराबर, सरकार मैं बैठे किसी एक ने जो कहा वो नज़ीर बन गई बस हां मैं मिलाओ, वरना जेल जाओ, इस सोच पर सुप्रीम कोर्ट ने करारा तमाचा लगाते हुए, उन विचारों को विराम दे दिया जो सरकार ने अपनी बनाई हुई थी, हद तो हुई जब संविधान को पढ़कर संविधान की रक्षा को लिए तैनात अफ़सरों ने ही संविधान को ठेंगा दिखाने की की कोशिश की थी, ये उन अधिकारियों को लिए भी सबके है, नज़ीरें सुप्रीम कोर्ट ही बनाती हैं.
साथ ही 14 सितंबर 2020 को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मदन बी लोकुर ने कहा था कि विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाने के लिए राजद्रोह जैसे कानून का इस्तेमाल किया जा रहा है जो चिंता का विषय है, तब फ्रीडम ऑफ स्पीच एंड जूडिशरी विषय पर आयोजित कार्यक्रम में लोकुर ने ये बात कही थी, विचार अभिव्यक्ति के मामले में जर्नलिस्टों को जेल में डालने के मामले का हवाला दिया था और कहा था कि विचार अभिव्यक्ति के मामले में अनुमान लगाया जा रहा है और गलत संदर्भ में देखा जा रहा है, जो बेहद ही चिंता का विषय है.
आपको ये भी बता दें कि 1995 में बलवंत सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सिर्फ नारेबाजी से राजद्रोह नहीं हो सकता, कैजुअल तरीके से कोई नारेबाजी करता है तो वह राजद्रोह नहीं माना जाएगा, उक्त मामले में दो सरकारी कर्मियों ने देश के खिलाफ नारेबाजी की थी, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नारेबाजी भर से देश को खतरा का मामला नहीं बनता, राजद्रोह तभी बनेगा जब नारेबाजी के बाद विद्रोह पैदा हो जाए और समुदाय में नफरत फैल जाए, वहीं 1959 में राम नंदर बनाम यूपी सरकार के वाद में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आईपीसी की धारा-124 ए को ही गैर संवैधानिक घोषित कर दिया था.
अब यहां सबसे बड़ा सवाल क्या ऐसे तमाम लोगों को जेल से मुकदमा रद्द कर रिहा किया जायेगा, जो सीएए और एनआरसी मामले मैं सरकार या विरोध करने को कारण बेगुनाह होते हुए भी जेल मैं हैं, या ये सिर्फ़ हमारे वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ जी के कैस मैं ही लागू होगा, माननीय सुप्रीम कोर्ट को अपने फ़ैसले मैं ऐसे सभी कैसों को राहत देनी चाहिए थी, जो शायद एक सोच कि विषय है.
अब सवाल जो पार्टी ख़ुद नफ़रत फैलाकर सत्ता पर वोटो का ध्रुवीकरण करके सत्ता मैं आई वो सरकार आज अपने ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों पर राजद्रोह और देशद्रोह से कैस दर्ज कर रही है, नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा ने जेपी आन्दोलन से अपनी शुरूआत की है, वहां भी अपना काम निकालकर सबको धोखा दिया और जिन वरिष्ठ पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर आज कैस दर्ज किया जा रहा है बहुत से उसी जेपी आन्दोलन से पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता बने हैं.
माननीय सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला सराहनीय है, हम इस फ़ैसले पर दिल से बधाई देते हैं...!
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